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हजारों साल पुरानी मूर्तियां हैं मल्हार की पहचान

दोस्‍तों आज हम आपको बताने जा रहें है मल्‍हार के बारे में जो कि बिलासपुर जिले में स्थित हैं। मल्‍हार का इतिहास बहुत प्राचीन रहा हैं यहां पर डिड़िन दाई मंदिर हैं जो कि मल्‍हार की धर्म भावना से जुड़ी हुई हैं । छत्‍तीेसगढ़ प्राचीन काल से ही संस्‍कृति का खजाना समेटे हुए हैं उसी में से आज हम एक खजाने यानि कि मल्‍हार के बारे में बताने वाले हैं। आप हमारे आर्टिकल को अंत तक पढ़े और जाने छत्‍तीेसगढ़ की एक और पहचान को।
मल्हार, मलार और मल्लानय, तीन नाम पर स्थान एक ही है। मल्हार बिलासपुर से 33 किलोमीटर दूर, मस्तूरी-पचपेड़ी मार्ग पर स्थित है। पुरानी कला-संस्कृति के कारण यह देशभर के पर्यटकों के लिये आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। मल्हार मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। इतिहासकार जीवन सिंह ठाकुर कहते हैं कि इसका निर्माण आजादी के पहले करीब सन 1936 में हुआ था। यह देवास रियासत की विधानसभा भी रहा है। इसका उपयोग साहित्यिक व सांगीतिक गतिविधयों के लिए होता रहा है। भारत का कोई ऐसा कलाकार नहीं है जो यहां न आया हो। कई बड़े राजनेता भी यहां आ चुके हैं। श्री ठाकुर के मुताबिक 1956 में राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद जब देवास आए थे तो मल्हार स्मृति मंदिर में ही कार्यक्रम हुआ था। उन्होंने बताया कि यह देवास का दुर्भाग्य ही है कि राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम होने के बावजूद शहर में एक भी आडिटोरिम नहीं है।

राह चलते यहां आपसे कोई ठीकरा या प्रतिमा खंड ठोकर खाकर लुढ़क सकता है, ऐसा टुकड़ा जी समृद्धि-गौरव से गुर गंभीर मौन हो और अपने किसी आत्मीय पुराविद को पाकर यकायक मुखर हो उठे। मल्हार और आसपास के वर्तमान गांव चकरबेड़ा, बैटरी, जुनवानी, नैवारी, जैतपुर, बूढ़ीखार शायद यह पूरा क्षेत्र पहले विशाल नगर का हिस्सा रहा होगा। वर्तमान जैतपुर और बेटरी गांव लीलागर नदी के किनारे हैं यानि मल्हार पूर्व में लीलागर, पश्चिम में कुछ दूरी पर अरपा और दक्षिण में कुछ और दूर शिवनाथ नदी, इस सलिला त्रयी की गोद में है। तालाब भी कोई पांच-पच्चीस नहीं पूरे एक सौ छब्बीस हैं। मलार का मल्हार नाम परिवर्तन तो हाल के वर्षों में हुआ, शायद अधिक ललित और साहित्यिक नाम के रूप में सुधारने की कोशिश में ऐसा हुआ। इसके बाद भी मूल स्थान नाम मलार, मल्लालपत्तन से सीधे व्युत्पन्न है। स्थान नाम का पत्तन शब्द महत्वपूर्ण है,पत्तन यानि बाजार-हाट या गोदी। पुराविदों का मत है कि मल्हार कभी प्रशासनिक मुख्यालय या राजधानी रहा हो, ऐसा पुष्ट प्रमाण नाम मात्र को मिलता है। धर्म, कला, व्यावसाय का महत्वपूर्ण केन्द्र जरूर रहा है। जलमार्ग से होने वाले व्यापारिक आवागमन की दृष्टि से मल्हार में आज भी केंवट-मल्लाहों का बाहुल्य है और केंवट आबादी के क्षेत्र भसर्री में पुराने अवशेषों की भरमार है। यहां घर की नींव खोदते हुए पुरानी नींव निकल सकती है और कुआं खोदते हुए निकल आया पुराना कुआं तो अब भी मौके पर देखा जा सकता है। यहां दो हजार साल से भी अधिक पुरानी बताई जाने वाली वासुदेव-विष्णु की अद्वितीय प्रतिमा सहित अनगिनत कलाकृतियां व देव-प्रतिमाएं हैं। प्रसन्न मात्र के एक मात्र ज्ञात तांबे के सिक्के और मघ शासकों के दुर्लभ सिक्कों सहित ढेरों सिक्के, मुद्रांक, व्याघ्रराज और महाशिवगुप्त के अभिलेखों सहित सैकड़ों-हजारों शब्दों का उत्कीर्ण प्राचीन साहित्य, बेशकीमती और ठोस पत्थरों की गुरिया और मनकों की तो खान ही है। पुरानी कीमियागिरी में प्रेरणा की भूमिका आदिम इच्छा ने ही निभाई, यानि यौवन और स्वर्ण या कहें कालजयी होने की ललक और भौतिक सम्पन्नता, ऐश्वर्य की चाह। मल्हार की प्राचीन कलाकृतियां आज कालजयी होकर हमारे समक्ष विद्यमान हैं। कहते हैं मल्हार में कभी सोने की बरसात हुई थी और यहां दुनिया के लिए ढाई दिन का राशन पूरा कर सकने की सम्पदा धरती के गर्भ में समाई हुई है। नाम भी है- सोनबरसा खार।


पुरातात्विक इतिहास
मल्हार के पुरातत्व का काल और क्षेत्र विस्तार धार्मिकता के तीन बिंदुओं पर केन्द्रित हो गया है. पातालेश्वर या केदारेश्वर मंदिर, देउर और डिडिन दाई । पातालेश्वर मंदिर परिसर में इस ग्राम और क्षेत्र की धार्मिक आस्थाओं के साथ कई गतिविधियां जुड़ी हैं। यहीं स्थानीय संग्रहालय है। मल्हार महोत्सव पर पूरे छत्तीसगढ़ के लोक-कलाकारों का मेला यहां लग जाता था और महाशिवरात्रि पर दस दिन के मेले में तो मानों पूरा क्षेत्र ही उमड़ पड़ता है।

कौशमबी से दक्षिण-पूर्वी समुद्र तट की ओर जाने वाला प्राचीन मार्ग भरहुत, बांधवगढ़, अमरकंटक, खरोद, मल्हाशर तथा सिरपुर होकर जगन्नाथपुरी की ओर जाता था। मल्हार के उत्खनन में ईसा की दूसरी शती की ब्राम्हीव लिपी में आलेखित उक मृणमुद्रा प्राप्त हुई है, जिस पर गामस कोसलीाया (कोसली ग्राम की) लिखा है। कोसली या कोसल ग्राम का तादात्यपी मल्हार से 16 किमी उत्त‍र पूर्व में स्थित कोसला ग्राम से स्थित जा सकता है। कोसला गांव से पुराना गढ़ प्राचीर तथा परिखा आज भी विद्यमान है, जो उसकी प्राचीनता को मौर्यो के समयुगीन ले जाती है।वहां कुषाण शासक विमकैडफाइसिस का एक सिक्का भी मिला है।

सातवाहन वंश- सातवाहन शासकों की गजांकित मुद्रायें मल्हार-उत्खनन से प्राप्ते हुई है। रायगढ़ जिला के बालपुर ग्राम से सातवाहन शासक अपीलक का सिकका प्राप्तक हुआ था। वेदिश्री के नाम की मृण्मुद्रा मल्हा‍र में प्राप्त हुई है। इसके अतिरिक्त सातवाहन कालीन कई अभिलेख गुंजी, किरारी, मल्हािर, सेमरसल, दुर्ग आदि स्थालों से प्राप्त हुआ है। छत्तीेसगढ़ क्षेत्र से कुषाण – शासकों के सिक्के भी मिले है। उनमं विमकैड्फाइसिस तथा कनिष्क प्रथम के सिक्के उल्ले‍खनीय है। यौधेयों के भी कुछ सिक्के इस क्षेत्र में उपलब्ध हुए है। मल्हार उत्खनन से ज्ञात हुआ है, कि इस क्षेत्र में सुनियोजित नगर-निर्माण का प्रारंभ सातवाहन-काल में हुआ। इस काल के ईट से बने भवन एवं मृदभाण्ड यहां मिलते है। मल्हार क गढ़ी क्षेत्र में राजमहल एवं अन्य संभ्रांतजनों के आवास रहे होंगे|

शरभपुरिय राजवंश – दक्षिण कोसल में कलचुरि शासक के पहले दो प्रमुख राजवंशो का शासन रहा | वे हैं शरभपुरिय तथा सोमवंशी | इन दिनों वंशो का राज्यकाल लगभग 425 से 655 ई. के बीच रखा जा सकता है | यह काल छत्तीसगढ़ के इतिहास का स्वर्ण युग कहा जा सकता है | धार्मिक तथा ललित कला के पांच मुख्य केंद्र विकसित हुए 1 मल्हार 2 ताला 3 खरोद 4 सिरपुर 5 राजिम |

कलचुरि वंश- नवीं सदी के उत्तरार्ध में त्रिपुरी के कलचुरि शासक कोकल्लदेव प्रथम के पुत्र शंकरगढ़ (मुग्धतुंग) ने डाहल मंडल से कोसल पर आक्रमण किया | पाली पर विजय प्राप्त करने के बाद उसने अपने छोटे भाई को तुम्माण का शासक बना दिया | कलचुरियो की यह विजय स्थायी नहीं रह पायी | सोमवंश शासक अब तक काफी प्रबल हो गये थे |उन्होंने तुम्माण से कलचुरियो को निष्कासित कर दिया | लगभग ई.1000 में कोकल्लदेव द्वितीय के 18 पुत्रो में से एक पुत्र कलिंगराज ने दक्षिण कोसल पर पुनः तुम्माण को कलचुरियो की राजधानी बनाया | कलिंगराज के पश्चात कमलराज, रत्नराज प्रथम तथा क्रमशः कोसल के शासक बने | मल्हार पर सर्वप्रथम कलचुरी-वंश का शासन जाजल्लदेव में स्थापित हुवा | पृथ्वीदेव द्वितीय के राजत्वाकाल में मल्हार पर कलचुरियो का मांडलिक शासक ब्रम्हदेव था | पृथ्वीदेव के पश्चात उसके पुत्र जाजल्लदेव द्वितीय के समय में सोमराज नामक ब्राम्हाण ने मल्हार में प्रसिद्ध केदारेश्वर मंदिर का निर्माण कराया | यह मंदिर अब पातालेश्वर मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है |

मराठा शासन- कलचुरि वंश का अंतिम शासक रघुनाथ सिंह था | ई.1742 में नागपुर का रघुजी भोंसले अपने सेनापति भास्कर पन्त के नेतृत्वा में उड़ीसा तथा बंगाल पर विजय हेतु छत्तीसगढ़ से गुजरा | उसने रतनपुर पर अक्रमण किया तथा उस पर विजय प्राप्त कर ली | इस प्रकार छत्तीसगढ़ से हैह्य वंशी कलचुरियो का शासन लगभग सात शाताब्दियो पश्चात समाप्त हो गया |

कला – उत्तर भारत से दक्षिण पूर्व की ओर जाने वाले प्रमुख मार्ग पर स्थित होने के करण मल्हार का महत्व बढ़ा | यह नगर धीरे-धीरे विकसित हुआ तथा वहां शैव, वैष्षव तथा जैन धर्मावालंबियो के मंदिरो,मठो मूर्तियों का निर्माण बड़े रूप हुआ | मल्हार में चतुर्भज विष्णुकी एक अद्वितीय प्रतिमा मिली है | उस पर मौर्याकालीन ब्राम्हीलिपि में लेख अंकित है | इसका निर्माण काल लगभग ई.पूर्व 200 है |मल्हार तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र से विशेषतः शैव मंदिरों के अवशेष मिले है जिनसे इस क्षेत्र में शैवधर्म के विशेष उत्थान का पता चला | पांचवी इसवी से सातवी सदी तक निर्मित शिव,कर्तिकेय,गणेश,स्कन्द माता,अर्धनारीश्वर आदि की उल्लेखनीय मुर्तिया यहाँ प्राप्त हुई है | एक शिल्लापट पर कच्छप जातक की कथा अंकित है | शिल्लापट पर सूखे तालाब से एक कछुए को उड़ा कर जलाशय की और ले जाते हुए दो हंस बने है | दूसरी कथा उलूक-जातक की है | इसमें उल्लू को पक्षियों का राजा बनाने के लिए सिंहासन पर बैठाया गया | सातवी से दसवी शती के मध्य विकसित मल्हार की मूर्तिकला में उत्तर गुप्त युगिन विशेषताए स्पष्ट परिलक्षित है | मल्हार में बौद्ध स्मारकों तथा प्रतिमाओ का निर्माण इस काल की विशेषता है|


डिड़िन दाई

डिड़िन दाई से पूरे मल्हार की धर्म-भावना जुड़ी हुई है। काले चमकदार पत्थर से बनी देवी। डिड़वा यानि अविवाहित वयस्क पुरुष और डिड़िन अर्थात कुंवारी लड़की। माना जाता है कि मल्हार के शैव क्षेत्र में डिडिनेश्वरी शक्ति अथवा पार्वती का रूप है, जब वे गौरी थीं, शिव-बरपान की आराधनारत थीं। डिड्रिन दाई का मंदिर पूरे मल्हार और आसपास के जन-जन की आस्था का केन्द्र है।

कैसे पहुंचें:

बाय एयर - रायपुर (148 कि.मी.) निकटतम हवाई अड्डा है जो मुबई दिल्ली , नागपुर, हैदराबाद, कोलकाता, विशाखापटनम एवं चेन्नई से जुडा हुआ है।
ट्रेन द्वारा - हावडा – मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर बिलासपुर (32 किमी) समीपस्थ रेल्वे, जंकशन है।
सड़क के द्वारा - बिलासपुर शहर से निजी वाहन अथवा नियमित परिवहन बसों द्वारा मस्तुररी होकर मल्हार तक सड़क मार्ग से यात्रा की जा सकती है।


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