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Kantara - A Story of Deeh Baba | कंताारा- ए स्‍टोरी ऑफ डीह बाबा


 
कल मैंने कांतारा फ़िल्म देखी। रात 11 बजे का शो था और थिएटर हाउसफुल था। साउथ की फ़िल्मों के लिये उत्तर भारत के लोगों में इतना दीवानापन, मैंने पहले कभी नहीं देखा था। सिनेमा हॉल से निकलते वक्त लोगों की आँखों में ऐसी चमक थी, मानो सालों पहले खोई हुई चीज़ पाकर लौट रहे हों।

मुझे दिल्ली में रहते हुए अभी कुछ महीने ही हुए हैं और मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी पट्टी का शहरी समाज अपनी जड़ों से पलायन कर चुके, निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों का जमावड़ा है। गाँव से अनाज की बोरी ढोकर लाते आदमी को देखकर, व्यंग भरी मुस्कान देने वालों का समाज है ये, जो खुद तो किलो की दर से अनाज खरीदकर गुज़ारा करता है और EMI पर IPHONE खरीदकर कुलीन होने का दम भरता है।

पहचान के संकट से जूझ रहे समाज में कांतारा फ़िल्म उस बूढ़े बाबा की तरह आई है, जो शहरी एलीट होने का स्वांग रचते अपने पोते को भरी महफ़िल से एकाएक "उठ मंगरुआ चल!" कहकर कंधे पर लाद लेती है और गाँव के डीह बाबा के सामने लाकर खड़ा कर देती है।

बचपन में सूरज ढलने के बाद हज़ार सिन्दूरी कंचों का लालच भी जिसे डीह बाबा के रास्ते से नहीं ले जा सकता था, जहाँ का भूत उसे रातों में अकेले सोने नहीं देता था और जिससे बचने का इकलौता उपाय डीह बाबा के स्थान पर माथा नवाना था, वही डीह बाबा अब उसके मज़ाक का सामान हैं और ये उसी डीह बाबा की फ़िल्म है।
उदारीकरण के बाद से ही हिंदी फ़िल्मों का दर्शक वर्ग पहचान के ऐसे संकट से जूझ रहा है, जिसका समाधान बॉलीवुड के पास नहीं है। तक़रीबन तीस सालों तक बॉलीवुड ने हिंदी पट्टी के मध्यवर्ग को अपने तत्त्वविहीन और ऊल-जुलूल कंटेंट से उलझाए रखा और पैसे कमाए। पर हर किस्से का इक इख़्तिताम होता है और हज़ार लिख दे कोई फ़तह ज़र्रे-ज़र्रे पर, शिक़स्त का भी अपना मुकाम होता है।

साउथ का सिनेमा मेनस्ट्रीम इंडियन सिनेमा के रूप में अपनी जगह बना रहा है, जबकि बॉलीवुड अब 'साउथ' और हॉलीवुड की चीप कॉपी करने में ही मौलिक सृजन का सुख ढूंढ रहा है।

बाहुबली पहली गैर-हिंदी फ़िल्म थी, जिसे मैंने थिएटर में देखा था और ये मैं तभी समझ गयी थी कि बात अब दूर तलक जाएगी।

दरअसल, साउथ का सिनेमा बॉलीवुड की तरह अपने दर्शकों को यूरोप, पेरिस और लंदन के सपने नहीं दिखाता, न ही अपनी संस्कृति, परंपराओं और अतीत को लेकर मुँह बिचकाता है। साउथ का डायरेक्टर और दर्शक वर्ग, दोनों अपनी जड़ों से जुड़े हैं तथा उन्हें उस पर गर्व भी है।

अजीब बात है कि आधुनिक मूल्यों की बात करने वाला बॉलीवुड अपनी फ़िल्मों में उत्कृष्टता लाने के बजाय विवादमूलक प्रसिद्धि पाने के फ़ॉर्मूले पर काम कर रहा है। बीते तीस सालों में बॉलीवुड ने मीनिंगफुल सिनेमा देने का जोखिम न के बराबर उठाया है और रीजनल सिनेमा इस मामले में बॉलीवुड को बहुत पीछे छोड़ चुका है।

खैर, बात मैं कांतारा फ़िल्म की कर रही थी और भटकूंगी नहीं। ये फ़िल्म इस बात का प्रमाण है कि जबरिया आदर्श ढोने से न सिर्फ सिनेमा की प्रामाणिकता घटती है बल्कि सिनेमा भी ख़राब होता है। ऋषभ शेट्टी ने जिस तरह अपनी इस फ़िल्म के साथ न्याय किया है, उसे याद रखा जाएगा। फ़िल्म की शुरुआत में भैंसा दौड़ और मुर्गों की लड़ाई के दृश्यों में वो घुल गए हैं।

जंगल पर आदिवासियों के अधिकार को लेकर ये फ़िल्म जिस तरह से सरकार और आदिवासी, दोनों पक्षों की दुविधा दिखाती है, उसके लिये भी इस फ़िल्म को याद रखा जाएगा।

पर इस फ़िल्म का जो सबसे बड़ा आकर्षण है, उसे जानने के लिये आपको ये फ़िल्म खुद देखनी होगी।

SAHARA BHARAT में विजिट करने के लिए धन्यवाद ।

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