डीलिमिटेशन - भारत का लोकतंत्र और उत्तर-दक्षिण का टकराव
परिचय: हिमालय बंजारे की कलम से
"नमस्कार, मैं हिमालय बंजारे हूँ। यह ब्लॉग मेरे विचारों, विश्लेषणों और सवालों का मंच है, जहाँ मैं भारत के लोकतंत्र, समाज और राजनीति जैसे मुद्दों पर अपनी राय रखता हूँ। मुझे जटिल विषयों को आसान भाषा में समझने और समझाने में रुचि है। मेरे इस ब्लॉग का मकसद है कि हम सब मिलकर देश के सामने खड़ी चुनौतियों पर सोचें और बेहतर समाधान खोजें। मेरे साथ इस यात्रा में शामिल हों और अपनी राय जरूर साझा करें!"
डीलिमिटेशन क्या है?
डीलिमिटेशन मतलब संसद और विधानसभा की सीटों की सीमाओं को फिर से तय करना। यह जनसंख्या के हिसाब से होता है, ताकि हर इलाके की आवाज बराबर सुनी जाए। आसान शब्दों में—जितने लोग, उतनी सीटें। लेकिन भारत में यह इतना आसान नहीं। यहाँ उत्तर और दक्षिण की जनसंख्या, तरक्की और सोच में जमीन-आसमान का फर्क है। तो यह सवाल बनता है—क्या यह बदलाव सही है, या देश को बाँट देगा?
दक्षिण क्यों चिल्ला रहा है?
दक्षिणी राज्य—like तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक—डीलिमिटेशन से परेशान हैं। क्यों?
जनसंख्या की सजा: दक्षिण ने 50 साल मेहनत की, जनसंख्या रोकी। केरल में प्रति महिला 1.6 बच्चे, तमिलनाडु में 1.4—आबादी लगभग वही रही। उधर, UP में 2.4, बिहार में 3.0—जनसंख्या में बूम। अब डीलिमिटेशन में सीटें जनसंख्या से तय होंगी। यानी उत्तर की सीटें खूब बढ़ेंगी (UP 80 से 90), लेकिन दक्षिण की वही रहेंगी या थोड़ी बढ़ेंगी (तमिलनाडु 39, केरल 20)। जो मेहनत की—जनसंख्या कंट्रोल कर देश का बोझ कम किया—उसे कम सीटें मिलेंगी। यह "सजा" जैसा लगता है।
पावर का डर: ये राज्य GDP में 30% हिस्सा देते हैं। तमिलनाडु 9% देता है, जितना UP, पर आबादी आधी। सीटें घटीं, तो संसद में इनकी आवाज कमजोर होगी।
उत्तर क्यों चुप है?
उत्तर भारत—like UP, बिहार, राजस्थान—में कोई हंगामा नहीं। क्यों? क्योंकि फायदा साफ दिख रहा है। UP की 80 सीटें 90 हो सकती हैं, बिहार की 40 से 50। ज्यादा सीटें मतलब संसद में ज्यादा दबदबा। वहाँ की पार्टियाँ खुश हैं—सत्ता का रास्ता आसान हो जाएगा। लेकिन सवाल यह है—क्या सिर्फ सीटें बढ़ने से उनकी गरीबी, बेरोजगारी हल होगी?
केंद्र का क्या प्लान है?
केंद्र (अभी बीजेपी की अगुवाई में) इसे क्यों लाना चाहता है?
संविधान का दबाव: 1976 से डीलिमिटेशन रुका है। 2026 में रोक खत्म हो रही है, तो करना पड़ेगा।
पॉलिटिकल गेम: बीजेपी का उत्तरी राज्यों में दम है। सीटें बढ़ीं, तो इनका रास्ता साफ। दक्षिण में पकड़ कम है (तमिलनाडु में 0, केरल में 1 सीट), तो वहाँ नुकसान की चिंता नहीं। लेकिन गठबंधन टूटने का डर भी है।
देश टूटेगा क्या?
हाँ, खतरा तो है। दक्षिण को लगेगा कि उनकी मेहनत बेकार गई। पहले तमिलनाडु में "द्रविड़ नाडु" की बात हुई थी—ऐसा फिर उभर सकता है। उत्तर-दक्षिण की खाई चौड़ी हुई, तो एकता को नुकसान होगा। लेकिन यह तुरंत टूटने वाला मामला नहीं—लंबे समय का खेल है। सवाल यह है—क्या केंद्र इसे समझेगा?
दक्षिण का दबाव कितना कारगर?
दक्षिण अगर एकजुट हुआ—like DMK, TDP, कांग्रेस—तो केंद्र पर दबाव बनेगा। अभी बीजेपी को गठबंधन (TDP, JDS) का सहारा है। दक्षिण नाराज हुआ, तो सरकार गिर सकती है। लेकिन दक्षिण में भी आपसी फूट—तमिलनाडु vs कर्नाटक, TDP vs YSRCP—रोड़ा बन सकती है। फिर भी, इनकी आर्थिक ताकत और नई राजनीतिक हैसियत इन्हें मजबूत बनाती है।
विपक्ष क्या करेगा?
विपक्ष (INDIA गठबंधन) मौके की तलाश में है। दक्षिण के आंदोलन को समर्थन देगा, सरकार को घेरेगा। लेकिन इनका फोकस भ्रम फैलाने से ज्यादा डीलिमिटेशन की कमियों को उजागर करना होगा। अगर सरकार साफ जवाब देगी, तो विपक्ष का शोर दब सकता है।
हल क्या हो सकता है?
यहाँ कुछ रास्ते हैं:
1. सीटें बढ़ाओ: 543 से 800-1000 कर दो। दक्षिण की न घटें, उत्तर की बढ़ें। सब खुश। लेकिन संसद का खर्चा और शोर बढ़ेगा।
2. नया फॉर्मूला: सिर्फ जनसंख्या नहीं—70% जनसंख्या + 30% आर्थिक योगदान। दक्षिण को उसकी तरक्की का इनाम मिले।
3. राज्यसभा का दाँव: लोकसभा में जनसंख्या आधार रखो, लेकिन राज्यसभा में दक्षिण को ज्यादा सीटें दो। संतुलन बनेगा।
आगे क्या होगा?
केंद्र झुकेगा: सत्ता खोने का डर है, तो समझौता करेगा। दक्षिण को कुछ ऑफर—पैसा, प्रोजेक्ट, या पावर—देकर शांत करेगा।
दक्षिण लड़ेगा: अपनी वैल्यू बचाने की जिद रहेगी। अब इनकी ताकत पहले से ज्यादा है।
जनता समझेगी: सरकार ने सोशल मीडिया और नेताओं से साफ बात रखी, तो जनता मान जाएगी। विपक्ष कमियाँ निकालेगा, लेकिन असर सीमित रहेगा।
मेरी राय
डीलिमिटेशन जरूरी है—लोकतंत्र में सबकी आवाज बराबर होनी चाहिए। लेकिन सिर्फ जनसंख्या से नहीं चलेगा। दक्षिण की मेहनत को नजरअंदाज करना गलत है। बीच का रास्ता ही सही है—सीटें बढ़ें, फॉर्मूला बदले, और सबको साथ लिया जाए। नहीं तो यह खेल देश को बाँट सकता है। केंद्र को समझदारी दिखानी होगी—सत्ता बचाने के लिए भी, और देश जोड़ने के लिए भी।
आप क्या सोचते हैं?
क्या सीटें बढ़ाना सही है, या नया फॉर्मूला बेहतर होगा? दक्षिण की जिद जायज है, या उत्तर का हक ज्यादा? नीचे कमेंट में बताए।
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