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नाड़ा खोलना, शरीर को छूना, जबरदस्‍ती पुलिया के नीचे ले जाना रेप नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला जिसने बहस छेड़ दी



नाड़ा खोलना, शरीर को छूना, जबरदस्‍ती पुलिया के नीचे ले जाना रेप नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला जिसने बहस छेड़ दी

हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट के एकल पीठ (सिंगल बेंच) के जज जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा (Ram Manohar Narayan Mishra) ने एक मामले में फैसला सुनाया, जिसने काफी विवाद उत्पन्न किया है। इस फैसले के अनुसार, एक नाबालिग लड़की के शरीर को छूना, उसके कपड़ों का नाड़ा खोलना और उसे पुलिया के नीचे खींचकर ले जाने की कोशिश करना बलात्कार (रेप) या बलात्कार का प्रयास नहीं माना गया। कोर्ट ने इसे गंभीर यौन हमला (serious sexual assault) करार दिया, लेकिन बलात्कार की परिभाषा के दायरे में नहीं लाया।


मामले का विवरण

यह मामला एक नाबालिग पीड़िता से जुड़ा था, जिसमें अभियुक्त पर आरोप था कि उसने पीड़िता के निजी अंगों को छुआ, उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ा और उसे पुलिया के नीचे ले जाने की कोशिश की। अभियोजन पक्ष ने इसे बलात्कार का प्रयास माना, लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि यह कृत्य भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375 के तहत बलात्कार की परिभाषा को पूरा नहीं करता। कोर्ट का तर्क था कि बलात्कार के लिए विशिष्ट शारीरिक कृत्यों का होना जरूरी है, जो इस मामले में साबित नहीं हुआ। इसके बजाय, इसे यौन अपराध से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO Act) के तहत यौन हमले की श्रेणी में रखा गया।


कोर्ट का तर्क

  • कोर्ट ने माना कि यह घटना गंभीर और आपत्तिजनक है, लेकिन बलात्कार की कानूनी परिभाषा में फिट नहीं बैठती।
  • फैसले में कहा गया कि केवल शरीर को छूना या कपड़े खोलने की कोशिश करना, बिना किसी स्पष्ट यौन प्रवेश (penetration) के, बलात्कार नहीं माना जा सकता।
  • यह भी उल्लेख किया गया कि अभियुक्त का इरादा भले ही गलत रहा हो, लेकिन वह बलात्कार के स्तर तक नहीं पहुंचा।


X पर लोगों की प्रतिक्रियाएँ

इस फैसले के बाद X पर लोगों ने तीखी और भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ दीं। यहाँ कुछ प्रमुख प्रक्रियाओं का सारांश है:


 आक्रोश और सवाल
- प्रतिक्रिया: "इलाहाबाद हाई कोर्ट का ताज़ा फैसला - शरीर छूना, नाड़ा खोलना, पुलिया के नीचे ले जाना रेप नहीं है। तो क्या चाहिए? पूरा अपराध होने का इंतज़ार? ये कैसा न्याय है जो पीड़िता को शर्मिंदा करता है?"  
- संदर्भ: यह एक यूजर की ओर से आक्रोश भरी टिप्पणी है, जो फैसले को पीड़ितों के प्रति असंवेदनशील मानती है।


 व्यंग्य और आलोचना
प्रतिक्रिया: "नया नियम: रेप तभी माना जाएगा जब जज साहब को लगे कि 'हाँ, ये पूरा हुआ'। आधा-अधूरा अपराध तो बस मज़ाक है न? इलाहाबाद HC ने कमाल कर दिया।"  
संदर्भ: यह व्यंग्यात्मक टिप्पणी कोर्ट के तकनीकी दृष्टिकोण पर तंज कसती है और फैसले की गंभीरता पर सवाल उठाती है।

कानूनी सुधार की माँग
प्रतिक्रिया: "इस फैसले ने साबित कर दिया कि IPC की धारा 375 पुरानी हो चुकी है। शरीर छूना, कपड़े खोलना रेप नहीं है? सरकार को कानून बदलना चाहिए, वरना ऐसी सोच अपराधियों को बढ़ावा देगी।"  
संदर्भ: यह एक गंभीर प्रतिक्रिया है, जो मौजूदा कानून में बदलाव की वकालत करती है और फैसले को सामाजिक रूप से हानिकारक मानती है।


ये उदाहरण X पर इस मामले को लेकर चल रही चर्चाओं के आधार पर तैयार किए गए हैं। वहाँ भावनाओं का मिश्रण देखने को मिला - गुस्सा, निराशा, और सुधार की माँग।

माहौल का सार

X पर चर्चा से साफ़ है कि यह फैसला लोगों के बीच विवाद का विषय बना। जहाँ कुछ ने इसे कानूनी तकनीक के आधार पर सही ठहराने की कोशिश की, वहीं ज़्यादातर यूजर्स ने इसे पीड़ितों के प्रति असंवेदनशील और अपराधियों को प्रोत्साहन देने वाला माना।

निष्कर्ष

यह फैसला कानूनी रूप से तकनीकी आधार पर सही हो सकता है, लेकिन इसने समाज में एक बहस छेड़ दी है कि क्या मौजूदा कानून यौन अपराधों के सभी पहलुओं को संबोधित करने में सक्षम हैं। इस मामले ने यह भी दिखाया कि कानून और सामाजिक अपेक्षाओं के बीच कभी-कभी अंतर हो सकता है।

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