क्यूं महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर जी ने भगत सिंह को फांसी से नहीं बचाया ?
भगत सिंह को फांसी से महात्मा गांधी और डॉ. भीम राव अंबेडकर के न बचा पाने के पीछे कई कारण थे, जो ऐतिहासिक, वैचारिक, और राजनीतिक परिस्थितियों से जुड़े हैं। इसे समझने के लिए दोनों व्यक्तियों के दृष्टिकोण और उस समय की परिस्थितियों को देखना जरूरी है।
महात्मा गांधी और भगत सिंह
1. वैचारिक मतभेद:
गांधी अहिंसा के सिद्धांत पर अडिग थे और स्वतंत्रता संग्राम को शांतिपूर्ण तरीके से लड़ने में विश्वास रखते थे। दूसरी ओर, भगत सिंह एक क्रांतिकारी थे, जो हिंसा को ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रभावी हथियार मानते थे। उनकी विचारधारा—जो समाजवाद और क्रांति पर आधारित थी—गांधी के सत्याग्रह से बिल्कुल उलट थी। इस मतभेद ने गांधी के लिए भगत सिंह के तरीकों का समर्थन करना मुश्किल बना दिया।
2. गांधी-इरविन समझौता:
5 मार्च 1931 को गांधी और वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच हुए समझौते में अहिंसक आंदोलनकारियों की रिहाई की शर्त शामिल थी, लेकिन भगत सिंह, सुखदेव, और राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों का जिक्र नहीं था। गांधी ने भगत सिंह की फांसी रोकने की कोशिश की—उन्होंने वायसराय से कई बार मुलाकात की और 23 मार्च 1931 को आखिरी पत्र लिखकर उनकी सजा माफ करने की अपील की। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसे ठुकरा दिया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि गांधी ने इस मुद्दे को समझौते की शर्त नहीं बनाया, क्योंकि वे व्यापक स्वतंत्रता संग्राम को प्राथमिकता दे रहे थे।
3. सीमित प्रभाव:
गांधी का ब्रिटिश सरकार पर प्रभाव था, लेकिन यह असीमित नहीं था। भगत सिंह को ब्रिटिश शासन एक खतरनाक क्रांतिकारी मानता था, जिसने लाहौर षड्यंत्र मामले (जॉन सॉन्डर्स की हत्या) और सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने जैसे कृत्यों से उनकी नींव हिला दी थी। ब्रिटिश सरकार उनकी फांसी को एक सबक के तौर पर देख रही थी, और गांधी की अपील उनके फैसले को बदलने में नाकाफी रही।
4. भगत सिंह की अपनी इच्छा:
भगत सिंह और उनके साथियों ने फांसी को स्वीकार करने का फैसला किया था। वे मानते थे कि उनकी शहादत युवाओं में क्रांति की चिंगारी जगा देगी। उन्होंने गांधी या किसी अन्य नेता से अपनी सजा माफ करवाने की मांग नहीं की। यह भी एक कारण था कि गांधी के प्रयासों का असर सीमित रहा।
डॉ. भीम राव अंबेडकर और भगत सिंह
1. सीमित राजनीतिक भूमिका:
1931 में अंबेडकर का मुख्य ध्यान सामाजिक सुधार, खासकर दलितों के अधिकारों और छुआछूत के खिलाफ लड़ाई पर था। वे उस समय स्वतंत्रता संग्राम में गांधी या कांग्रेस की तरह सक्रिय रूप से शामिल नहीं थे। उनकी प्राथमिकता संवैधानिक और सामाजिक न्याय की स्थापना थी, न कि क्रांतिकारी आंदोलनों का नेतृत्व।
2. कानूनी स्थिति में दखल की कमी:
अंबेडकर एक कुशल वकील थे और उन्होंने कई मौकों पर कानूनी लड़ाई लड़ी थी। लेकिन भगत सिंह का मामला ब्रिटिश विशेष ट्रिब्यूनल के अधीन था, जिसे वायसराय लॉर्ड इरविन ने 1 मई 1930 को अध्यादेश के जरिए बनाया था। इस ट्रिब्यूनल के फैसले को बदलने की कोई कानूनी गुंजाइश नहीं थी, और अपील प्रिवी काउंसिल तक खारिज हो चुकी थी। अंबेडकर के पास इस मामले में हस्तक्षेप करने का कोई प्रत्यक्ष अधिकार या मंच नहीं था।
3. संपर्क और प्रभाव का अभाव:
उस समय अंबेडकर और भगत सिंह के बीच कोई सीधा संपर्क या सहयोग का प्रमाण नहीं मिलता। भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियाँ और अंबेडकर का सामाजिक सुधार का कार्य अलग-अलग दिशाओं में चल रहे थे। साथ ही, अंबेडकर का ब्रिटिश सरकार पर उतना प्रभाव नहीं था जितना गांधी का भी नहीं था।
अन्य कारण
ब्रिटिश सरकार की सख्ती:
ब्रिटिश सरकार ने भगत सिंह को एक बड़े खतरे के रूप में देखा। उनकी बढ़ती लोकप्रियता और क्रांतिकारी विचारधारा को दबाने के लिए फांसी को जरूरी माना गया। 23 मार्च 1931 को तय तारीख से 11 घंटे पहले उनकी फांसी दे दी गई, जिससे किसी भी हस्तक्षेप की संभावना खत्म हो गई।
समय और परिस्थिति:
उस समय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। गांधी सविनय अवज्ञा आंदोलन और कांग्रेस की रणनीति में व्यस्त थे, जबकि अंबेडकर राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस की तैयारी में थे। भगत सिंह का मामला इतनी तेजी से आगे बढ़ा कि इसे रोकने के लिए संगठित प्रयास नहीं हो सके।
निष्कर्ष
गांधी ने भगत सिंह को बचाने की कोशिश की, लेकिन उनकी अहिंसा की नीति, ब्रिटिश सरकार की जिद, और भगत सिंह की अपनी शहादत की इच्छा ने इसे असंभव बना दिया। अंबेडकर के पास न तो इस मामले में सीधा हस्तक्षेप करने का मंच था और न ही पर्याप्त राजनीतिक शक्ति। इस तरह, वैचारिक अंतर, ब्रिटिश नीति, और समय की परिस्थितियों ने मिलकर भगत सिंह की फांसी को अपरिहार्य बना दिया।
0 Comments