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बोध गया के लिए संघर्ष: एक बौद्ध विरासत को बचाने की लड़ाई




बोध गया के लिए संघर्ष: एक बौद्ध विरासत को बचाने की लड़ाई


21 मार्च, 2025 को भारत के कोने-कोने में एक शक्तिशाली आंदोलन की गूँज सुनाई दे रही है, जिसका केंद्र बिहार का बोध गया है—वह पवित्र स्थल जहाँ भगवान बुद्ध ने 2,500 साल पहले ज्ञान प्राप्त किया था। जो शुरू में एक स्थानीय विरोध के रूप में शुरू हुआ था, वह अब एक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय न्याय की माँग में बदल गया है। बौद्ध और उनके समर्थक अपनी विरासत को बचाने और महाबोधी मंदिर और इसके आसपास के विहारों पर नियंत्रण की माँग के लिए एकजुट हो रहे हैं। यह सिर्फ एक भौतिक स्थान की लड़ाई नहीं है; यह पहचान, अधिकार और उस विरासत को संरक्षित करने की जंग है, जिसने सहस्राब्दियों तक भारत की आध्यात्मिक पहचान को आकार दिया है।


आंदोलन की चिंगारी


आकाश लामा जैसे नेताओं और ऑल इंडिया बुद्धिस्ट फोरम जैसे संगठनों के नेतृत्व में शुरू हुआ यह आंदोलन एक गहरी शिकायत से उपजा है: महाबोधी मंदिर, जो यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल है और बौद्ध धर्म का सबसे पवित्र स्थल है, पूरी तरह से बौद्धों के हाथों में नहीं है। बोध गया मंदिर प्रबंधन समिति (बीटीएमसी), जो 1949 के बोध गया मंदिर अधिनियम के तहत स्थापित की गई थी, एक साझा शासन संरचना की माँग करती है—चार बौद्ध, चार हिंदू और जिला मजिस्ट्रेट इसके अध्यक्ष के रूप में। दशकों से यह व्यवस्था विवाद का विषय रही है, जिसमें कई बौद्धों का तर्क है कि यह उनके अपने पवित्र स्थान पर उनकी सत्ता को कमजोर करती है।


प्रदर्शनकारियों की माँग स्पष्ट है: 1949 के अधिनियम को रद्द करो और मंदिर और इसके प्रबंधन के लिए पूरी तरह से बौद्धों की समिति बनाओ। उनका कहना है कि वर्तमान व्यवस्था गैर-बौद्ध प्रभावों को इस स्थल पर हस्तक्षेप करने की अनुमति देती है, जिससे इसकी पवित्रता खतरे में पड़ती है। धरना स्थल से रिपोर्ट्स बताती हैं कि मंदिर परिसर में हिंदू रीति-रिवाज—जैसे घंटियाँ बजाना और "शिवलिंग-शिवलिंग" का जाप—हो रहे हैं, जो बौद्ध भिक्षुओं और भक्तों के लिए परेशानी का सबब बन रहा है। कुछ प्रदर्शनकारी आरोप लगाते हैं कि पंडों और प्रशासन की मिलीभगत से मंदिर को हिंदू मंदिर में तब्दील करने की कोशिश हो रही है। यहाँ तक कि बोधि वृक्ष को "विष्णु का अवतार" और मूर्तियों को "पांडवों" के रूप में पेश करने जैसे दावे भी किए जा रहे हैं।


समर्थन की बढ़ती लहर


इस आंदोलन का पैमाना और समावेशिता इसे खास बनाती है। बिहार के जिलों से लेकर महाराष्ट्र, नागपुर, इटावा, लद्दाख, और यहाँ तक कि अमेरिका तक समर्थन की बाढ़ आ रही है। प्रदर्शनकारी अनुमान लगाते हैं कि 20 मार्च तक करीब एक लाख लोग इस आंदोलन में शामिल हो सकते हैं। बिहार विधानसभा में आरजेडी और सीपीआई (एमएल) के विधायक जैसे अजीत कुशवाहा ने इस मुद्दे को उठाया है, जिससे यह राजनीतिक मंच पर भी चर्चा का विषय बन गया है। हैंडीकैप एसोसिएशन जैसे संगठन भी इस लड़ाई में शामिल हो रहे हैं—एक हैंडीकैप व्यक्ति व्हीलचेयर पर धरने में शामिल हुआ, जो इस आंदोलन की व्यापकता को दर्शाता है।


आंदोलनकारी सरकार से बातचीत की कोशिश कर रहे हैं। 27 फरवरी को होम सेक्रेटरी अनिमेश पांडे ने 10 दिन का समय माँगा था, लेकिन 11 दिन बाद भी कोई जवाब नहीं मिला। अब वे डीएम ऑफिस में प्रतिनिधि मंडल भेज रहे हैं और परसों एक बड़ा मूवमेंट प्लान कर रहे हैं। उनकी नजर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे धम्म के प्रति संवेदनशील हैं और जिन्होंने राजगीर जैसे बौद्ध स्थलों का विकास किया है। प्रदर्शनकारियों ने 12 मई, बुद्ध पूर्णिमा को डेडलाइन तय की है, जब वे एक करोड़ बौद्धों—भंते, लामा, और उपासकों—को बोध गया में लाने की योजना बना रहे हैं।


यह सिर्फ मंदिर की लड़ाई नहीं है


यह आंदोलन केवल महाबोधी मंदिर तक सीमित नहीं है। प्रदर्शनकारी इसे 84,000 बुद्ध विहारों की विरासत को बचाने की लड़ाई के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि बोध गया में जो हो रहा है—अतिक्रमण, गंदगी, और गैर-बौद्ध प्रथाओं का हस्तक्षेप—वह बौद्धों के साथ 75 सालों से चला आ रहा अन्याय का प्रतीक है। भंते प्रशील माथेर, जो छह साल तक ट्रस्ट में रहे, बताते हैं कि हाल के वर्षों में स्थिति बिगड़ी है। वे कहते हैं कि कुछ लोग पीली धोती पहनकर डोनेशन माँगते हैं, बौद्ध मूर्तियों को गलत तरीके से पेश करते हैं, और यहाँ तक कि चप्पल को "बुद्ध के जमाने की" बताकर विदेशियों से पैसे ऐंठते हैं। उनका आरोप है कि नालंदा से लाए गए कुछ भंते भी इस लूट में शामिल हैं।


यहाँ की अव्यवस्था भी चिंता का विषय है। डीजे का शोर, सैकड़ों कुत्तों का उत्पात, भिखारियों की भीड़, और पुलिस द्वारा चढ़ावे का दुरुपयोग—ये सब शांति की तलाश में आए लोगों के लिए निराशाजनक हैं। प्रदर्शनकारी पूछते हैं: अगर गुरुद्वारों में सिख परंपराएँ और मंदिरों में हिंदू रीति-रिवाज संरक्षित हैं, तो बौद्ध स्थलों पर ऐसा क्यों नहीं? वे कहते हैं कि संविधान ने धार्मिक समानता दी, लेकिन यहाँ वह छीनी जा रही है।


प्रतीकात्मक विरोध और अपील


इस आंदोलन में प्रतीकात्मकता की भी बड़ी भूमिका है। 26 और 27 तारीख को प्रदर्शनकारियों ने आँखों पर काली पट्टी बाँधकर धरना दिया, यह संदेश देते हुए कि सरकार उनकी ओर ध्यान दे, "अंधा कानून" न बनाए। टेंट के नीचे मच्छरों के बीच बैठे भंते और उपासक अपनी दृढ़ता दिखा रहे हैं। लोकल लोग खाने-पीने की व्यवस्था कर रहे हैं, जो इस आंदोलन को जन-आंदोलन का रूप दे रहा है।


आंदोलनकारी स्पष्ट करते हैं कि यह किसी धर्म के खिलाफ नहीं है। आकाश लामा कहते हैं, "हम हिंदू-मुसलमान की लड़ाई नहीं लड़ रहे। हम अपने हक के लिए लड़ रहे हैं।" वे समाज से अपील करते हैं कि इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाएँ। "अगर बौद्ध हैं, तो अभी उठें। अगर नहीं हैं, तो भी इस कानून के खिलाफ बोलें।" उनका अनुमान है कि भारत में 25 करोड़ व्यवहारिक बौद्ध हैं, और यह आंदोलन उनकी एकता का प्रतीक बन सकता है। वे कहते हैं, "अभी नहीं तो कभी नहीं।"


गाँव-गाँव तक यह आवाज पहुँच गई है। अब वे चाहते हैं कि लोग धरना स्थल तक पहुँचें। "हमने 27 दिन तक आवाज उठाई, अब गाँव वाले घर से निकलें। एक मुट्ठी अनाज और जन समर्थन लेकर आएँ," वे कहते हैं। उनका सपना है कि महाबोधी महाविहार बौद्धों के हाथों में हो, ताकि वे गर्व से कह सकें कि यह उनकी विरासत है।


आगे का रास्ता


यह आंदोलन एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। अगर सरकार उनकी माँगें मानती है—1949 का एक्ट रद्द कर पूरी कमेटी बौद्धों को सौंपती है—तो यह न केवल बौद्धों के लिए, बल्कि भारत की सांस्कृतिक विविधता के लिए एक जीत होगी। प्रदर्शनकारी कहते हैं, "जिस तरह सम्राट अशोक का नाम 2300 साल बाद भी जीवित है, वैसे ही अगर मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री इस विरासत को हमें सौंपते हैं, तो उनका नाम भी अमर हो जाएगा।"


बोध गया की यह लड़ाई सिर्फ एक मंदिर की नहीं, बल्कि शांति, समानता और संवैधानिक अधिकारों की है। यह एक विश्व धरोहर को उसकी मूल पहचान वापस दिलाने की जंग है। क्या यह आंदोलन अपनी मंजिल तक पहुँचेगा? समय बताएगा, लेकिन एक बात तय है—बौद्धों की यह आवाज अब दबने वाली नहीं है।

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